परिचय
भारतीय संविधान विश्व का सबसे विस्तृत और जीवंत संविधान है, जो न केवल नागरिकों के अधिकारों की रक्षा करता है बल्कि उनके कर्तव्यों का निर्धारण भी करता है। संविधान के भाग IV(क) में अनुच्छेद 51(क) के अंतर्गत मौलिक कर्तव्यों का उल्लेख किया गया है, जिन्हें 42वें संविधान संशोधन अधिनियम, 1976 द्वारा जोड़ा गया था।
ये कर्तव्य स्वर्ण सिंह समिति की सिफारिशों पर आधारित हैं और भारतीय नागरिकों के लिए आदर्श आचरण के मार्गदर्शक सिद्धांत प्रस्तुत करते हैं।
प्राचीन भारतीय अवधारणाओं में धर्म और कर्तव्य
भारतीय परंपरा में कर्तव्य की अवधारणा अत्यंत प्राचीन और समृद्ध है। प्राचीन ग्रंथों जैसे वेद, उपनिषद, रामायण और महाभारत में धर्म (कर्तव्य) को मानव जीवन का आधार माना गया है। महाभारत में भगवान कृष्ण द्वारा अर्जुन को दिया गया 'कर्मण्येवाधिकारस्ते' का उपदेश कर्तव्यपालन का मूल मंत्र है।
मनुस्मृति में भी व्यक्ति के सामाजिक और नैतिक कर्तव्यों का विस्तृत वर्णन मिलता है। प्राचीन भारत में कर्तव्य को केवल कानूनी बाध्यता नहीं, बल्कि नैतिक और आध्यात्मिक उन्नति का साधन माना जाता था। यह दृष्टिकोण आधुनिक मौलिक कर्तव्यों के दर्शन में भी परिलक्षित होता है।
मौलिक कर्तव्य: अनुच्छेद 51(क) [(क) से (छ)]
अनुच्छेद 51(क) में वर्तमान में ग्यारह मौलिक कर्तव्य शामिल हैं, जिनमें से दस 1976 में और ग्यारहवाँ 86वें संविधान संशोधन, 2002 द्वारा जोड़ा गया था। ये कर्तव्य हैं:
- संविधान का पालन करना और उसके आदर्शों, संस्थाओं, राष्ट्रध्वज और राष्ट्रगान का आदर करना।
- स्वतंत्रता के लिए हमारे राष्ट्रीय आंदोलन को प्रेरित करने वाले उच्च आदर्शों को संजोना और उनका पालन करना।
- भारत की प्रभुता, एकता और अखंडता की रक्षा करना और उसे अक्षुण्ण रखना।
- देश की रक्षा करना और आह्वान किए जाने पर राष्ट्र की सेवा करना।
- भारत के सभी लोगों में समरसता और समान भ्रातृत्व की भावना का निर्माण करना, स्त्रियों के सम्मान के विरुद्ध प्रथाओं का त्याग करना।
- हमारी सामासिक संस्कृति की गौरवशाली परंपरा का महत्व समझना और उसका संरक्षण करना।
- प्राकृतिक पर्यावरण की रक्षा और संवर्धन करना तथा जीव-जंतुओं के प्रति दया भाव रखना।
- वैज्ञानिक दृष्टिकोण, मानववाद और ज्ञानार्जन तथा सुधार की भावना का विकास करना।
- सार्वजनिक संपत्ति को सुरक्षित रखना और हिंसा से दूर रहना।
- व्यक्तिगत और सामूहिक गतिविधियों के सभी क्षेत्रों में उत्कृष्टता के लिए प्रयास करना, ताकि राष्ट्र निरंतर बढ़ते हुए प्रयास और उपलब्धि की नई ऊँचाइयों को छू सके।
- 6 से 14 वर्ष तक की आयु के अपने बच्चे या प्रतिपाल्य के लिए शिक्षा का अवसर प्रदान करना (86वें संशोधन द्वारा जोड़ा गया)।
ये कर्तव्य नागरिकों के चरित्र निर्माण और राष्ट्र निर्माण में उनकी भूमिका को परिभाषित करते हैं।
मौलिक कर्तव्यों की विधिक स्थिति और न्यायिक दृष्टिकोण
मौलिक कर्तव्यों की एक विशेष विधिक स्थिति है। ये कर्तव्य न्यायोचित नहीं हैं, अर्थात इनका पालन न करने पर नागरिकों पर कोई सीधी कानूनी कार्रवाई नहीं की जा सकती। इन्हें नैतिक और नागरिक दायित्व के रूप में देखा जाता है। हालाँकि, न्यायपालिका ने विभिन्न निर्णयों के माध्यम से इन कर्तव्यों के महत्व को रेखांकित किया है।
महत्वपूर्ण न्यायिक निर्णय:
न्यायालय ने यह भी माना है कि मौलिक अधिकारों का प्रयोग मौलिक कर्तव्यों के साथ सामंजस्य बनाकर किया जाना चाहिए। नागरिकों के अधिकार और कर्तव्य एक-दूसरे के पूरक हैं। कर्तव्यपालन के बिना अधिकारों का दुरुपयोग हो सकता है। न्यायालय ने कानून बनाते समय विधायिका को मौलिक कर्तव्यों को ध्यान में रखने का सुझाव भी दिया है।
हाल के वर्षों में, राष्ट्रीय कर्तव्यों के प्रति जागरूकता बढ़ाने के लिए विभिन्न पहल की गई हैं। राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 2020 में मौलिक कर्तव्यों को पाठ्यक्रम में शामिल करने पर जोर दिया गया है। विधि आयोग ने भी मौलिक कर्तव्यों को प्रवर्तनीय बनाने के लिए सुझाव दिए हैं, हालाँकि अभी तक ऐसा कोई कदम नहीं उठाया गया है।
निष्कर्ष
मौलिक कर्तव्य भारतीय संविधान के महत्वपूर्ण अंग हैं जो नागरिकों को उनके राष्ट्रीय और सामाजिक दायित्वों का स्मरण कराते हैं। ये कर्तव्य प्राचीन भारतीय मूल्यों और आधुनिक राष्ट्रीय आवश्यकताओं का समन्वय करते हैं। भले ही ये न्यायोचित नहीं हैं, फिर भी इनका नैतिक और शैक्षिक महत्व अत्यधिक है।
एक जागरूक और कर्तव्यपरायण नागरिक ही लोकतंत्र की सफलता की गारंटी हो सकता है। इसलिए, मौलिक कर्तव्यों के प्रति समर्पण और उनका पालन प्रत्येक नागरिक का राष्ट्र के प्रति पवित्र दायित्व है।
ये कर्तव्य हमें याद दिलाते हैं कि अधिकार और कर्तव्य साथ-साथ चलते हैं और एक सुदृढ़ राष्ट्र का निर्माण तभी संभव है जब प्रत्येक नागरिक अपने कर्तव्यों के प्रति सजग और समर्पित हो।